डूबते की नैया पार लगाने वाला...अस्पताल...
हमें बीमारी से आज़ादी दिलाने वाला यह स्वतंत्रता सेनानी है फिर भी सबके डर का कारण होता है| मरीज़ का इलाज दवा से नहीं बल्कि बिल ज्यादा आ जाने के डर से ही हो जाता है| ज्यादा परेशान वह बीमारी से नहीं बल्कि आने वालों की भीड़ से होता है| नींद की तलाश में जैसे ही मरीज़ निकलता है उसकी दुखती नब्ज़ पर कोई हाथ रख देता है| उसकी परेशानी से भरी कहानी का एक और खरीददार वहाँ आ पड़ता है| उनके साथ आया शोर शराबा, बच्चों की चिल्लेपों, फ़ोन की घंटियाँ, जब लाख समझाने पर भी नहीं बंद होती तो आखिर मन मसोस के मरीज़ मुट्ठी भींच कर पड़ा रहने के अलावा क्या कर सकता है|
आया हुआ शोर, बीमारी का अनेकों बार बखान और आने-जाने वालों का आदर-सत्कार मरीज़ को कुछ दिन और अस्पताल का कस्टमर बना देता है| "जनाब पहले बताया होता मुंबई ले चलते अपनी काफी पहचान है, पर आप तो हमें ही पराया समझते हैं", "भगवान चाहेगा तो सब ठीक हो जाएगा!" और ना जाने क्या क्या घिसे पिटे ढोंग रचकर अपने कर्त्तव्य की पूर्ती होने का आभास करते हैं| रिश्तेदारों की एक्टिंग के तो बिग-बी भी कायल हो जाएँ और खुद को छोटा ख़िलाड़ी समझकर पेशा बदल डालें| ढोंगियों का ढोंग तब खत्म होता है जब उनकी बातें सुनकर आप यह कह दें की आज रात मरीज़ के साथ आप अस्पताल रुक जाओ, तुरंत आनेवाले जानेवाले बन जाते हैं|
अब बात आती है सरकारी अस्पताल के कर्मचारियों की जिनसे समय पर काम की आस लगाना ही बेकार है| आप ठीक तो हो जाएँ सब आपके सामने ईनाम मांगने को आतुर रहेंगे जैसे की उन्होंने ही मरते में प्राण फूंक डाले हों| भला हो उन बाइयों का जो मरीज़ के मल-मूत्र का ध्यान रखती हैं, ईनाम की सच्ची हक़दार हैं वो पर बाकी सब तो बहती गंगा में डुबकी क्या कूद पड़ने को आतुर होते हैं| एक तरफ अकेला मरीज़ सूइयों की चुभन, दर्द और बदहाल शरीर से जूझ रहा होता है तो दूसरी ओर दवाइयों का जखीरा लिए आधा दर्जन नर्सें उसे प्यार भरी नज़रों से देख पुचकारती दुलारती हैं| हमेशा की तरह प्यार यहाँ भी पनप जाता है पर यह दवाइयों का असर था जिसने ठीक किया या फिर उन्ही नर्सों का जादू यह बता पाना थोड़ा मुश्किल ही है|
जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलु होते हैं उसी प्रकार हमेशा गलती अस्पताल और डॉक्टर की नहीं होती, मरीज़ भी कई सारी गलतियों का पिटारा लिए बैठा होता है| डॉक्टर पर अविश्वास उसकी सबसे बड़ी भूल होती है, और शक का तो वेदों में भी कोई इलाज नहीं| जब दवाई का असर होने ही जा रहा होता है तभी जनाब आने-जाने वालों के बहकावे में आकर डॉक्टर बदल लेते हैं| यहाँ चट मंगनी पट ब्याह नहीं चलता जनाब, यहाँ तो कछुआ चाल से ही चलना पड़ता है और सब्र का फल ही मीठा होता है| जान भली तो लाखों गवाए और लौट के हम तो घर को आए वाली स्तिथि है यहाँ तो|
मरीज़ हमेशा ही पड़े हुए सोचता रहता है की उसके साथ ही ऐसा क्यूँ होता है पर असलियत तो यह है की जब किसी और पर यह सब बीत रहा होता है तब वह भी आने-जाने वालों की पटकथा का नायक बना फिर रहा था| डॉक्टर को भी समझना चाहिए की पैसे के इस दौर में जिंदगी रुपी दिया बुझने से बचाने के लिए अधिक तेल की नहीं बल्कि हवा से लड़ने की आवश्यकता है| अर्थात पैसे लेकर नहीं बल्कि सही रोग निवारण ही उसको ख्याति दिला सकता है, इस समाज में उसे इसी से कीर्ति मिलेगी|
आज नोचने कचोटने वाले जानवरों की भीड़ है दुनिया में पर पुराने संगी साथी अगर मरीज़ के साथ हों और हिम्मत बाँधते रहें तथा पुरानी मधुर यादों का छिडकाव करते रहें तो मरीज़ स्वतः ही ठीक हो जाता है| जिनसे आशा हो या जिनके साथ ऐसा कुछ घटा हो और वो अपनी ऐसी प्रेरक आपबीती का घूँट दे जाएँ तो बीमारी पर जीतने की रह आसन हो जाती है साथ ही नया आत्मविश्वास जन्म लेता है| इस लिए आओ प्रण करें की हम और आप आने-जाने वाले ना बनकर सच्चे साथी बनें ताकी कहीं यह जब हमपर बीत रहा हो तो हमें किसी की कमी ना खले और ना आत्मग्लानी हो|
Sabse badi baat yeh hai ki aaj samaaj khudgarz aur netagiri jatane wali ho gayi hai. Banda beemar hai aur kahan uski khaatirdaari kare koi, ulte log ye jatane pahunch jaate hain ki wo mareez ke chaheete logon mein se hain. Mauke ki nazaaqat ko samajhte hain, par alag hi tareeke se. Aisa kaam karte hain ki jinme unhe apna faayda dikhe.
ReplyDeleteSahi bht sahi........ultimate.........Zamane ki haqiqat to bade achhi tarah se pesh kiya hai janab.
ReplyDeleteShraddha